भाजपा से सपा तक के लिए सिरदर्द हैं निर्दलीय, जानें इनसे क्यों हारते हैं बड़े दल

यूपी में नगर निकाय चुनाव दो चरणों में होना है। पहले चरण में नौ मंडलों
पब्लिक न्यूज़ डेस्क। यूपी में नगर निकाय चुनाव दो चरणों में होना है। पहले चरण में नौ मंडलों के 37 जिलों में चार मई को मतदान होगा, जबकि बाकी नौ मंडलों के 38 जिलों में दूसरे चरण में 11 मई को मतदान होगा। इसके बाद सभी 75 जिलों में 13 मई को मतगणना होगी।
लगभग सभी दलों के प्रत्याशियों का एलान हो चुका है और नामांकन की प्रक्रिया भी पूरी हो चुकी है। राष्ट्रीय से लेकर क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के प्रत्याशी तक चुनाव में ताल ठोक रहे हैं। हालांकि, इन सबके सामने एक बड़ी चुनौती भी है। ये चुनौती है निर्दलीय उम्मीदवारों की।
हर बार की तरह इस बार भी निकाय चुनावों में कई नेता पार्टी से टिकट न मिलने पर निर्दलीय मैदान में उतर चुके हैं तो कई खुद की राजनीति चमकाने के इरादे से। कई ऐसे भी हैं, जो सामाजिक कार्यों में जुटे रहते हैं और फिर पार्षद, नगर पंचायत, नगर पालिका जैसे चुनावों के जरिए राजनीतिक मैदान में उतर जाते हैं। इस बार भी ऐसे कई चेहरे मैदान में हैं।
आंकड़े देखें तो ऐसे निर्दलीय प्रत्याशियों से राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों को बड़ा खतरा होता है। नगर पालिका, नगर पंचायत में तो निर्दलीय प्रत्याशियों के जीत का आंकड़ा दलों वाले उम्मीदवारों से कहीं अधिक है।
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर ये निर्दलीय प्रत्याशी ऐसा क्या करते हैं कि लोग उन्हें बड़े से बड़े दलों के प्रत्याशियों को किनारे करके वोट दे देते हैं? पिछली बार निर्दलीय प्रत्याशियों के जीत का क्या आंकड़ा था? आइए समझते हैं...
पहले जानिए 2017 के आंकड़े
पिछले नगरीय निकाय चुनाव नवंबर 2017 में तीन चरणों में हुए थे। 75 जिलों के कुल 652 नगरीय निकायों के नतीजे एक दिसंबर 2017 को आए। इसमें राज्य की सत्ताधारी भाजपा ने एकतरफा जीत दर्ज की थी। उसने 16 महापौर पद में से 14 पर कब्जा जमाया था जबकि दो पद बसपा के खाते में गए थे। 1300 नगर निगम पार्षद पद की बात करें तो भाजपा ने सबसे ज्यादा 596 सीटों पर जीत हासिल की थी। भाजपा के बाद दूसरे नंबर पर जीत हासिल करने वाले निर्दलीय प्रत्याशी ही थे। 225 निर्दलीय प्रत्याशियों को इसमें सफलता मिली थी। इसके बाद समाजवादी पार्टी ने 202, बहुजन समाज पार्टी ने 147, कांग्रेस ने 110 और बाकी पर अन्य ने जीत दर्ज की थी।
198 सीटों पर नगर पालिका परिषद अध्यक्ष के चुनाव हुए थे। इनमें से भाजपा के खाते में 70, सपा ने 45, बसपा ने 29, कांग्रेस ने नौ और एक सीट भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने जीती थी। भाजपा और सपा के बाद तीसरे नंबर पर निर्दलीय प्रत्याशी ही थे। चुनाव में कुल 43 निर्दलीय उम्मीदवार जीत हासिल कर नगर पालिका अध्यक्ष बने।
अब नगर पालिका परिषद सदस्य के चुनाव पर नजर डाल लेते हैं। इसमें निर्दलीय प्रत्याशियों के आगे बड़े-बड़े राजनीतिक दल के उम्मीदवार फेल हो गए। चुनाव में सबसे ज्यादा 3379 सदस्य निर्दलीय निर्वाचित हुए। इसके बाद भाजपा के 923, सपा के 477, बसपा के 262, कांग्रेस के 158 प्रत्याशी चुनाव जीते थे।
कुछ यही हाल नगर पंचायत अध्यक्ष पद पर भी देखने को मिला। 2017 में सबसे ज्यादा 182 नगर पंचायत अध्यक्ष निर्दलीय ही निर्वाचित हुए थे। इसके बाद भाजपा के 100 प्रत्याशी चुनाव जीतकर नगर पंचायत अध्यक्ष बने। सपा के 83, बसपा के 45 और कांग्रेस के 17 नगर पंचायत अध्यक्ष प्रत्याशी चुनाव जीते थे।
नगर पंचायत सदस्य में भी बड़े दलों के उम्मीदवारों पर निर्दलीय भारी पड़े थे। इस चुनाव में भाजपा के 664 नगर पंचायत सदस्य बने थे। इसके बाद सपा के 453, बसपा के 218 और कांग्रेस के 126 थे। वहीं, सबसे ज्यादा 3,876 निर्दलीय प्रत्याशी नगर पंचायत सदस्य निर्वाचित हुए।
निर्दलीय उम्मीदवारों से क्यों हारते हैं बड़े दल के प्रत्याशी?
स्थानीय निकाय के चुनावों में मतदाता पार्टी से ज्यादा महत्व अपने जान पहचान और जाति के उम्मीदवार को तरजीह देती है। इन चुनावों में जाति, धर्म और उम्मीदवार का चेहर देखा जाता है। यही वजह है कि इन चुनावों में बड़ी संख्या में निर्दलीयों को जीत मिलती है। इसके साथ ही धनबल का जोर भी इन चुनावों में खूब चलता है।
राजनीतिक विश्लेषक रमाशंकर श्रीवास्तव कहते हैं कि ज्यादातर निर्दलीय ताल ठोकने वाले प्रत्याशी ऐसे होते हैं, जो अपने क्षेत्र के लोगों के साथ रहते हैं। ये क्षेत्र के लोगों के हर सुख-दुख में उनका साथ देते हैं। बड़े मुद्दों पर उनके लिए आवाज उठाते हैं। जरूरत पड़ने पर हर तरह से मदद करने की कोशिश भी करते हैं। वहीं, राजनीतिक दलों के कई ऐसे प्रत्याशी होते हैं जो क्षेत्र के लोगों के लिए एकदम नए होते हैं। यही कारण है कि चुनाव के वक्त लोग भी पार्टी और वैचारिक सोच को अलग रखते हुए अपने काम आने वाले निर्दलीय प्रत्याशी को वोट करते हैं।