1996 में हुए 11वीं लोकसभा चुनाव में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई, पहली बार प्रधानमंत्री बने अटल बिहारी वाजपेई की सरकार मात्र 13 दिन में गिर गई जानिए
11वीं लोकसभा भले ही अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई लेकिन देश में बहुत कुछ ऐसा हुआ जो न पहले कभी हुआ था न ही अब तक
पब्लिक न्यूज़ डेस्क- 11वीं लोकसभा भले ही अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई लेकिन देश में बहुत कुछ ऐसा हुआ जो न पहले कभी हुआ था न ही अब तक हुआ। भारतीय जनता पार्टी पहली बार सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। अटल बिहारी वाजपेयी पहली दफा पीएम बने। देश में ऐसा पहली ही बार हुआ कि कोई पीएम सिर्फ 13 दिन ही कुर्सी पर रह सका। जी हां, यह रिकॉर्ड अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर है। इसी लोकसभा ने दो साल में ही तीन-तीन प्रधानमंत्री देखे, कार्यकाल फिर भी पूरा नहीं हुआ और देश तीसरी बार मध्यावधि चुनाव का सामना करने को मजबूर हुआ। साल 1998 में भारत में फिर से आम चुनाव हुए।
लोकतंत्र की यही खूबसूरती है कि जब आम भारतीय मतदाताओं ने सत्तारूढ़ कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार को हटा दिया लेकिन किसी को बहुमत भी नहीं दिया। भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में सामने आई, जिसे 161 सीटें मिली। इसी कारण तब के राष्ट्रपति रहे पंडित शंकर दयाल शर्मा ने भाजपा संसदीय दल के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने को आमंत्रित किया। उन्होंने शपथ ली लेकिन सिर्फ 13 दिन में इस्तीफा देना पड़ गया क्योंकि उन्हें बहुमत के लिए जरूरी समर्थन नहीं मिल सका। फिर विपक्षी दलों ने मिलकर एक गठबंधन बनाया और एचडी देवगौड़ा ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। यह दूसरा मौका था जब दक्षिण भारतीय राज्य से आने वाले नेता ने पीएम पद की शपथ ली थी। इससे पहले नरसिंह राव को यह अवसर मिला था। चुनाव बाद बना यह गठबंधन बहुत दिनों तक नहीं चला और देवगौड़ा को बमुश्किल डेढ़ साल में ही इस्तीफा देना पड़ा और उन्हीं की सरकार में मंत्री रहे इंद्र कुमार गुजराल कांग्रेस के समर्थन से 11वीं लोकसभा में तीसरे ऐसे व्यक्ति बने, जिन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। अपेक्षाकृत बेहद साफ-सुथरे आईके गुजराल की सरकार भी कुछ महीने ही चली और साल 1998 में एक बार फिर आम चुनाव घोषित हो गए। 11वीं लोकसभा में चुनाव के परिणाम आने शुरू हुए तभी अहसास होने लगा था कि हंग पार्लियामेंट देश के सामने आने को है। इस चुनाव में 20 फीसदी से कुछ ज्यादा वोट पाने वाली भारतीय जनता पार्टी 161 सीटें जीतने में कामयाब हुई तो लगभग 29 फीसदी वोट लेकर कांग्रेस को सिर्फ 140 सीटें ही मिल सकीं। 10वीं लोकसभा की तर्ज पर जनता दल 46 सीटों पर जीत दर्ज कर तीसरे सबसे बड़े दल के रूप में सामने आया। इस चुनाव में जनता दल के अलावा आठ ऐसे दल भी थे, जिनके सांसदों की संख्या दहाई में थी, यही इकलौती वजह थी कि किसी भी दल को बहुमत नहीं मिल सका। वोटों का खूब बंटवारा हुआ। यह भी कह सकते हैं कि क्षेत्रीय दलों ने अपना विस्तार किया। वे मतदाताओं के बीच अपनी बात पहुंचाने में कामयाब रहे।
इस बार सभी 543 सीटों पर चुनाव एक साथ हुए थे। लगभग 58 फीसदी मतदाताओं ने वोट डाले थे। इस चुनाव में लगभग 14 हजार कैंडिडेट्स मैदान में थे। इनमें 10 हजार से कुछ ज्यादा तो निर्दलीय थे, इनमें से नौ की जीत भी हुई थी। आठ राष्ट्रीय और 30 क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने भी मजबूत भागीदारी दिखाई थी। 171 नए-नए दल और इतनी बड़ी संख्या में कैंडिडेट इस बात का संकेत दे रहे थे कि आम भारतीय नागरिक अब राजनीति में गहरी रुचि लेने लगा है। यह भी कि आम लोगों में संसद पहुंचने की ललक भी बढ़ी है। यह पढ़ाई-लिखाई का स्तर बढ़ने का असर भी हो सकता है या फिर रोल मॉडल बने नेताओं का आम जनमानस पर असर। यही वह समय था जब राजनीति में बड़ी संख्या में आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों ने दस्तक दे दी थी। यह पहला चुनाव था जब कांग्रेस को वोट भले ही सबसे ज्यादा मिले लेकिन सीटें देश भर में कम हुईं और भारतीय जनता पार्टी का राज्यों में विस्तार हुआ इसीलिए कम मत पाने के बावजूद उसे सीटें ज्यादा मिलीं। यह कांग्रेस के लिए खतरे की घंटी थी। इस दल ने खुद में कोई सुधार भी नहीं किया क्योंकि बाद में कांग्रेस के नेतृत्व में भले ही दो बार सरकार बनी लेकिन एक राजनीतिक दल के रूप में उसका प्रदर्शन कभी औसत तो कभी औसत से भी नीचे ही चल रहा है। देश में अस्थिरता का यह दौर लंबे समय तक चला। इस बीच भारतीय जनता पार्टी ने शानदार प्रदर्शन किया और उसमें लगातार सुधार भी दिखाई दे रहा है। इस तरह तमाम खट्टे-मीठे परिणामों के बीच देश ने 1998 में फिर से चुनाव देखा।