चुनावी दंगल से बाहर कद्दावर मुस्लिम चेहरे

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चुनावी दंगल से बाहर कद्दावर मुस्लिम चेहरे

चुनावी दंगल से बाहर कद्दावर मुस्लिम चेहरे


मुजफ्फरनगर। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम मतदाता निर्णायक स्थिति में हैं। इसके बावजूद सियासी दंगल में क द्दावर और सियासी घरानों के मुस्लिम चेहरे चुनावी दंगल से बाहर हैं। समीकरण ऐसे बदले कि जिनके खिलाफ चुनाव लड़ते थे, उनका साथ देना पड़ रहा है। कुछ जगह ध्रुवीकरण न हो जाए, इसके चलते गैर भाजपा दलों ने पुराने मुस्लिम चेहरों को टिकट देने से परहेज किया तो कुछ जगह उनकी जगह दूसरे चेहरों पर दांव खेला है। सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ और बिजनौर में कई दिग्गजों को टिकट नहीं मिला है।

कैराना से मीरापुर तक आलम लड़े चुनाव, इस बार नहीं
शामली के गढ़ीपुख्ता के आलम परिवार का राजनीति में रसूख रहा है। 1985 में लोकदल के टिकट पर अमीर आलम थानाभवन से विधायक बने थे। 1989 में जनता दल के टिकट पर मोरना से जीते। 1993 में थानाभवन से हार गए। 1996 में फिर सपा के टिकट पर थानाभवन से जीते। 1999 में कैराना सीट से अमीर आलम सांसद चुने गए। 2012 में उनके बेटे नवाजिश आलम बुढ़ाना से सपा के टिकट पर चुनाव जीते, लेकिन बसपा के टिकट पर 2017 में नवाजिश मीरापुर से हार गया और इस बार चुनाव के मैदान में नहीं है।

इस बार खाली हाथ सुजडू का राना परिवार
पूर्व सांसद कादिर राना पहली बार मोरना सीट से 2007 में रालोद के टिकट पर विधायक बने थे। 2009 में बसपा के टिकट पर मुजफ्फरनगर से सांसद रहे। उनके भाई नूरसलीम राना चरथावल से बसपा के टिकट पर 2012 में विधायक बने थे। भतीजे शाहनवाज राना बिजनौर से विधायक रहे और लोकसभा का चुनाव हारे। कादिर राना की पत्नी सईदा बेगम बुढ़ाना सीट से पिछला चुनाव हार गई थी। इस बार परिवार के किसी सदस्य को टिकट नहीं मिला है।

राफे खां के परिवार को इस बार टिकट नहीं
थानाभवन से 1969 और 1977 में विधायक रहे राव अब्दुल राफे खां के बेटे अब्दुल राव वारिस को इस बार टिकट नहीं मिला है। कैड़ी बाबरी के रहने वाला राफे खां परिवार राजनीति में 53 साल से सक्रिय है। अब्दुल वारिस की मां राव मुसर्रत बेगम भी भाकिकापा के टिकट थानाभवन सीट से उप चुनाव लड़ी थीं। 2007 में अब्दुल राव वारिस रालोद से जीतकर विधायक बने थे, लेकिन इसके बाद वह बसपा में शामिल हो गए। राव वारिस 2017 का चुनाव भी लड़े, लेकिन हार गए थे। इस बार भी टिकट के दावेदार थे, लेकिन टिकट नहीं मिला।

इमरान चुनावी दंगल से बाहर, नोमान गंगोह से लड़ रहे चुनाव
सहारनपुर जिले की सियासत में कद्दावर नेता इमरान मसूद कांग्रेस छोड़कर सपा में गए, लेकिन टिकट नहीं मिला। 2017 के चुनाव में डाक्टर धर्मसिंह सैनी से पराजित हो गए थे। धर्म सिंह सैनी इस बार पाला बदलकर सपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं और इमरान को उनका साथ देना पड़ रहा है। इमरान मसूद बेहट सीट से वर्ष 2007 के चुनाव में निर्दलीय चुनाव लड़ कर विधायक बने थे।

इसके बाद उन्होंने 2012 और 2017 का चुनाव नकुड़ विधानसभा सीट से कांग्रेस के टिकट पर लड़ा, मगर दोनों ही बार हार गए। काजी रशीद मसूद परिवार में गंगोह से इमरान के भाई नोमान मसूद बसपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। सहारनपुर देहात से विधायक रहे मसूद अख्तर भी चुनावी दंगल में नहीं है।

इमरान मसूद का कहना है कि वह अखिलेश को मुख्यमंत्री बनाना चाहते हैं। इसीलिए वो सपा में आए है। चुनाव नहीं लड़ रहे, लेकिन हाईकमान ने जो आदेश दिया है, उसका पालन कर रहा हूं। सभी सीटों पर गठबंधन के प्रत्याशियों को मजबूती के साथ चुनाव लड़ाया जा रहा है।

लोकतंत्र में यकीन रखने वाले को करें वोट: उलमा
देवबंद दारुल उलूम के फतवा ऑनलाइन के चेयरमैन मौलाना मुफ्ती अरशद फारुकी का कहना है कि जो लोकतंत्र में यकीन रखता हो और उस पर साफ नीयत से अमल करता हो। ऐसे लोगों को ही समर्थन देना चाहिए। मदरसा जामिया हुसैनिया के वरिष्ठ उस्ताद मौलाना मुफ्ती तारिक कासमी का कहना है कि हर सेक्यूलर सोच रखने वाले व्यक्ति, इस तरह की पार्टी और प्रत्याशी का चयन करना चाहिए जो हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई की बात न करके धर्म और जात-पात से ऊपर उठकर देश का विकास करने के साथ ही संविधान को बचाने की बात करे।

राजनीति के दंगल से बाहर हैं शेख खुलेमान
समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता शेख सुलेमान पार्टी से टिकट नहीं मिलने के कारण 2022 का चुनाव नहीं लड़ पाए।
शेख सुलेमान वर्ष 1989 में बहुजन समाज पार्टी से चुनाव लड़े थे ओर उन्होंने कांग्रेस पार्टी के महमूदूल हसन अंसारी को चुनाव हराया था। इसके शेख सुलेमान बसपा से वर्ष 1991 में दुबारा चुनाव लड़े ओर भाजपा के डाक्टर इंद्रदेव सिंह से चुनाव हार गये थे। इसके वर्ष 1993 में शेख सुलेमान पुन: निर्दलीय चुनाव लड़े ओर इन्द्रदेव सिंह से चुनाव जीत गये थे।

नवाब परिवार बागपत से मैदान में
बागपत विधानसभा सीट से रालोद-सपा गठबंधन ने अहमद हमीद को चुनाव मैदान में उतारा है। छपरौली विधानसभा सीट पर बसपा ने साहिक व कांग्रेस ने डा. यूनुस चौधरी को प्रत्याशी बनाया है। इस तरह मुख्य पार्टियों ने दो विधानसभा सीटों पर तीन मुस्लिम प्रत्याशी उतारे है।

याकूब और अखलाक परिवार सियासत की दर्शक दीर्घा में
मुस्लिमों की सियासत के बड़े चेहरे हाजी याकूब और हाजी शाहिद अखलाक के परिवार इस बार चुनाव से बाहर हैं। लंबे अरसे तक मेरठ की सियासत इन दो चेहरों के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है।
हाजी शाहिद अखलाक कुरैशी को सियासत अपने पिता और विधायक रहे हाजी अखलाक से विरासत में मिली है। हाजी अखलाक शहर सीट से जनता दल के टिकट पर शहर सीट से विधायक रहे। शाहिद अखलाक 2002 में बसपा से मेरठ के महापौर रहे और 2004 में सांसद चुने गए। 2012 में में शाहिद ने अपने भाई राशिद अखलाक को चुनाव लड़ाया पर वह हार गए।

पूर्व मंत्री हाजी याकूब कुरैशी 1996 में शहर के डिप्टी मेयर चुने गए इसके बाद वह 1999 में मेरठ से लोकसभा का चुनाव लड़े पर हार गए। वर्ष 2002 में वह खरखौदा से भाजपा के जयपाल सिंह को हराकर विधायक चुने गए और बसपा सरकार में मंत्री बने। एक साल बाद ही बसपा-भाजपा गठबंधन की सरकार गिर गई। हाजी याकूब सपा में शामिल हो गए। उन्होंने 2007 में यूडीएफ बनाकर मेरठ शहर सीट से चुनाव लड़ा और भाजपा के डॉ. लक्ष्मीकांत वाजपेयी को हराकर विधायक बने।

2007 में उप्र में बसपा को पूर्ण बहुमत मिला और सरकार बनी। तो हाजी याकूब ने यूडीएफ का बसपा में विलय कर दिया। 2012 में याकूब ने रालोद का दामन थामा और सरधना सीट से विधायक का चुनाव लड़े, लेकिन जीत नहीं पाए। याकूब ने 2014 में फिर हाथी की सवारी कर ली और मुरादाबाद से लोकसभा का चुनाव लड़े, लेकिन जीत नहीं सके। 2017 में याकूब ने मेरठ दक्षिण विधान सभा सीट पर भाग्य आजमाया पर जीत नहीं पाए। 2019 में याकूब ने बसपा के चुनाव चिंह पर एक बार फिर लोकसभा चुनाव लड़ा, लेकिन 4700 मतों के अंतर से भाजपा के राजेन्द्र अग्रवाल से हार गए।

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