क्या है 'कांवड़ यात्रा' का इतिहास?

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क्या है 'कांवड़ यात्रा' का इतिहास?

क्या है 'कांवड़ यात्रा' का इतिहास?

शिव के प्रिय महीने सावन की शुरुआत 4 जुलाई से हो रही है और इसी दिन से पवित्र 'कांवड़ यात्रा' भी प्रारंभ होगी।


पब्लिक न्यूज़ डेस्क। शिव के प्रिय महीने सावन की शुरुआत 4 जुलाई से हो रही है और इसी दिन से पवित्र 'कांवड़ यात्रा' भी प्रारंभ होगी। इस दौरान शिव भक्त 'हर-हर महादेव' के उद्घोष के साथ कंधे पर कांवड़ लेकर हरिद्धार से गंगा जल लेने जाते हैं और फिर उस जल से शिवलिंग का अभिषेक किया जाता है।

कहते हैं ऐसा करने से भोलेनाथ प्रसन्न होते हैं और वो भक्तों की हर मनोकामना पूरी करते हैं। ये यात्रा बहुत कठिन होती है क्योंकि इसमें भक्तगण पदयात्रा करते हैं। गर्मी-बारिश या तूफान आए वो अपने कांवड़ को जमीन पर जरा भी नहीं उतारते हैं, ये भक्तों की सच्ची आस्था और ईश्वर के प्रति लगाव ही है कि वो अपने शिव-शंभू के लिए ना दिन देखते हैं और ना ही रात।

कांवड़ यात्रा का जिक्र 'वाल्मिकी रामायण' और 'आनंद रामायण' में भी मिलता है। पौराणिक कथाओं की माने तो समुद्र मंथन के दौरान निकले विष को शिव जी ने विश्व की शांति और प्रजा को बचाने के लिए खुद विषपान कर लिया था लेकिन उसे कंठ के नीचे उतरने नहीं दिया था, जिसके कारण उनका गला नीला पड़ गया था और इसी वजह से दुनिया उन्हें 'नीलकंठ' के नाम से भी पुकारती है।

जहर की पीड़ा को शांत करने के लिए होता है अभिषेक लेकिन विष का पान करने से शिव को काफी पीड़ा हुई थी और इसी पीड़ा को शांत करने के लिए लोग उनका जलअभिषेक करते हैं और जब ये अभिषेक गंगाजल से होता है तो इससे शिव को शांति के साथ-साथ खुशी भी मिलती हैं क्योंकि मां गंगे तो उनकी जटाओं में निवास करती हैं। इसी वजह से सावन में कांवड़ के जरिए जल अभिषेक की प्रथा सदियों से चली आ रही है।

श्रवण कुमार पहले कांवड़ यात्री थे कहते हैं कि श्रवण कुमार पहले कांवड़ यात्री थे, जिन्होंने कावंड़ में अपने माता-पिता को बैठाकर ये यात्रा पूरी की थी।बता दें कि सावन में इस बार अधिमास के कारण आठ सोमवार पड़ने वाले हैं और इसलिए इस बार भक्तों को आठ सोमवार का व्रत करने का सौभाग्य प्राप्त होगा।