कार्तिक पूर्णिमा को देव क्यों मनाते हैं दीपावली? इसके मूल में हैं भगवान शिव शंकर

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कार्तिक पूर्णिमा को देव क्यों मनाते हैं दीपावली? इसके मूल में हैं भगवान शिव शंकर

कार्तिक पूर्णिमा को देव क्यों मनाते हैं दीपावली? इसके मूल में हैं भगवान शिव शंकर


पब्लिक न्यूज डेस्क। कार्तिक पूर्णिमा की रात नदियों में तैरते दीप, घाटों पर पंक्तिबद्ध लाखों दीप एक अद्भुत दिव्य दृश्य उपस्थित करते हैं। खासकर गंगा के घाटों पर ज्योति बिखेरते दीपक, गूंजते आरती के स्वर, विभिन्न वाद्य यंत्रों के स्वर बहुत मनोहारी लगते हैं। नदियों में दीपदान का अर्थ भी यही है कि हम अपने अंतरमन में कहीं छिपे बैठे तम को दूर करते हुए अपने भीतर और बाहर प्रकाश फैलाएं और नदियों का सम्मान करते हुए पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षा का संकल्प लें। हमारी सनातन संस्कृति में प्रकृति को देव मानने की परंपरा अनादि काल से चली आ रही है। कार्तिक पूर्णिमा को मनाई जाने वाली देव दीपावली वस्तुत: प्रकृति के संरक्षण का ही पर्व है।

इसलिए मानते हैं देव दीपावली

कहा जाता है कि देव दीपावली के मूल में भगवान शंकर हैं। उन्होंने ही देवताओं और मनुष्यों के साथ-साथ प्रकृति के विनाश को आतुर राक्षस त्रिपुरासुर का वध कार्तिका पूर्णिमा के ही दिन किया था। इसी उत्साह में देवताओं ने दीपावली मनाई थी, जिसे हम आज देव दीपावली के नाम से जानते हैं। मान्यता है कि देवलोक से गंधर्व, किन्नर, देव आदि इस दिन गंगा और अन्य नदियों के किनारे उपस्थित होकर देव दीपावली मनाते हैं। इसी कारण हम नदियों में दीपदान कर व दीपों से घाटों को सजाकर हम देवताओं के संग दीपावली मनाते हैं।

एक अन्य कथा है कि राजा त्रिशंकु को जब विश्वामित्र ने अपने तपोबल से स्वर्ग पहुंचा दिया, तो देवताओं ने उन्हें स्वर्ग से नीचे गिरा दिया। अधर में लटकते त्रिशंकु की पीड़ा विश्वामित्र से देखी नहीं गई। यह उनका भी अपमान था। इससे क्षुब्ध होकर एक नए संसार की रचना करनी शुरू कर दी। माना जाता है कि कुश, मिट्टी, ऊंट, बकरी-भेड़, नारियल, कद्दू, सिंघाड़ा जैसी चीजें उन्होंने ने ही बनाई थी। यहां तक कि उन्होंने त्रिदेवों की प्रतिमाएं बनाकर उसमें प्राण फूंक दिए थे। नतीजा यह हुआ कि प्रकृति में असंतुलन पैदा हो गया। सारा चराचर जगत अकुला उठा। बाद में जब देवताओं ने इस प्राकृतिक असंतुलन की ओर विश्वामित्र का ध्यान आकृष्ट कराया, तो उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ।
देव दीपावली का संदेश

इन दोनों कथाओं, ऐतिहासिक आख्यानों का निहितार्थ अगर खोजें, तो यही है कि हमें प्रकृति को असंतुलित होने से बचाना होगा। देव दीपावली एक अवसर के समान है कि हम पर्यावरण के यज्ञ में अपनी भी आहुति देने का संकल्प लें। करोड़ों लोगों को जीवन देने वाली अधिकांश नदियों का पानी आज प्रदूषण के कारण उपयोग योग्य नहीं रह गया है। आक्सीजन की मात्रा कम होने से जलीय जीव विलुप्त हो रहे हैं। ऐसे में देव दीपावली जैसा पावन पर्व संदेश देता है कि नदियों में दीपदान कर हमें उन्हें सुरक्षित, संरक्षित और जीवनदायिनी बनाने में योगदान देना चाहिए। हम अपनी नदियों को प्रदूषण मुक्त करने का संकल्प लेकर देवताओं के साथ उनकी दीपावली मना सकते हैं।

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