बुलडोजर के अगर जलवे हैं तो क्या सेहरा मुख्यमंत्री के सिर ही बंधेगा..?

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बुलडोजर के अगर जलवे हैं तो क्या सेहरा मुख्यमंत्री के सिर ही बंधेगा..?

बुलडोजर के अगर जलवे हैं तो क्या सेहरा मुख्यमंत्री के सिर ही बंधेगा..?


पब्लिक न्यूज़ डेस्क।  भाजपा क्यों जीती? सपा क्यों हारी? सात चरणों के चुनाव में उत्तर प्रदेश में जहां जाओ और जिससे पूछो तो दो बातें एकदम स्पष्ट दिखतीं-योगी मोदी का शासन और गरीब को राशन। बुलडोजर यानी कानून व्यवस्था और शानदार बिजली आपूर्ति ने भाजपा के अभियान पर सोने का वर्क लगा दिया। इसके विपरीत समाजवादी पार्टी के पास केवल एक नेता था, जिससे वह करिश्मे की आस करती रह गई।

सपा मुस्लिम-यादव और भाजपा के असंतुष्टों के भरोसे मैदान में थी और इन्हीं के बूते वह भाजपा की कमियां गिनाती रही जबकि भाजपा के नेता और कार्यकर्ता योगी सरकार के काम लेकर जनता में पैठ बनाते रहे। सपा ने एक ध्रुवीकरण की कोशिश की, लेकिन प्रतिक्रिया में हुए ध्रुवीकरण को नाप नहीं सकी।

..और भाजपा के पास मोदी थे। यह फिर सिद्ध हुआ कि प्रधानमंत्री मोदी की रैलियां और रोड शो वोटों का अंबार लगाते हैं। वह जहां जाते, भाजपा का ग्राफ चढ़ जाता। इस बार उन्हें साथ मिला योगी का और तब इस जोड़ी ने उत्तर प्रदेश में 37 वर्षो बाद सरकार दोहराने का इतिहास बना दिया। यूपी जैसे जटिल राज्य में पांच साल सरकार चलाने के बाद इतने भारी बहुमत से लौटने का एक ही अर्थ है कि भाजपा का हाथ जनता की नब्ज पर है और वह अन्य दलों की तरह हवाई राजनीति नहीं कर रही।

आश्चर्यजनक है कि विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी की जगह मोदी-योगी की जोड़ी काम कर गई। अनेक सीटों पर हमें ऐसे वोटर मिले जो अपने विधायक या प्रत्याशी को नहीं जानते थे, लेकिन मोदी-योगी के कारण जिन्हें फूल पर मुहर लगानी थी। छुट्टा पशुओं का मुद्दा जब गरम था, तब बहराइच में एक वोटर बड़ी आशा से बोला, ‘मोदी जी ने अगर कहा है कि दस मार्च के बाद कोई हल निकालेंगे तो वह कुछ न कुछ करेंगे जरूर।’ जनता का यह भरोसा ही नेता की असल कमाई है। इसीलिए जब राबर्ट्सगंज में प्रधानमंत्री ने ‘पक्के मकान का पक्का वादा’ किया तो उस आदिवासी बहुल क्षेत्र ने आंख मूंदकर उनकी बात मान ली। बस्ती के किसान बड़ी राहत में थे कि उन्हें, ‘अब पंप की रखवाली के लिए खेतों में रात भर जगना नहीं पड़ता।’

यह चिंतामुक्ति बड़ी बात है। कानून व्यवस्था माफिया का फन कुचलने का ही नाम नहीं होती। गुंडे का दमन आमजन के लिए उत्साहवर्धक होता है, लेकिन कानून के डंडे का असर जब साधारण गृहस्थ अपने पक्ष में महसूस करता है तो उसमें आया कृतज्ञता भाव ही समय आने पर वोटों में बदल जाता है। इस चुनाव में जातीय गठबंधन का बहुत शोर था। जयंत चौधरी, स्वामी प्रसाद मौर्य और ओमप्रकाश राजभर के साथ सपा का मेल इंटरनेट मीडिया और भाजपा विरोधियों को लहालोट किए दे रहा था, लेकिन यह नहीं समझा गया कि ऐसा कोई भी गठबंधन सपा-बसपा गठजोड़ से अधिक प्रभावी नहीं हो सकता। समाजवादी पार्टी की सीटें बढ़ना और भाजपा की सीटें घटने का कोई अर्थ नहीं। दोनों दल 2017 में जहां पहुंच चुके थे, वहां से उन्हें ऊपर नीचे ही होना था। असल बात यह है कि सपा दोबारा हारी और भाजपा दोबारा जीती। इसके आगे बाकी सब अंकगणित है।

विपक्ष के मुद्दे क्या थे? बेसहारा पशु, पुरानी पेंशन, किसान आंदोलन, बेरोजगारी, नाराज जाट, विधायकों की और विधायकों से नाराजगी। परिणाम बता रहे हैं, मतदाताओं ने इन्हें वरीयता नहीं दी। अखिलेश यादव चुनाव को जातियों में ले जाने का प्रयास कर रहे थे जबकि भाजपा की कोशिश राष्ट्रवाद और अस्सी बनाम बीस की थी। यह फामरूला फिर हिट हुआ और अब 2024 में भी आजमाया जाना है। इस चुनाव में बसपा की भूमिका और योगदान बहस का विषय है और कांग्रेस के लिए उसका अपना प्रदर्शन चिंता का। देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी किसी छोटे क्षेत्रीय दल की तरह भी नहीं लड़ पा रही।

हर चेहरे पर था आश्चर्य और ‘देखते हैं’ वाला भाव। अब जब योगी अपने दम पर भारी बहुमत लेकर लौटे हैं तो आम जन में उनके कामकाज का प्रबल समर्थन है जबकि भाजपा के बाहर-भीतर वाले उनके विरोधी सकते में हैं। 10 मार्च 2022 को योगी भाजपा के एक ऐसे राष्ट्रीय नेता बन गए हैं जो अपने समकक्षों से अब बहुत आगे है और भाजपा के भीतर भी जिनकी आवाज अब बहुत वजनी होगी। बुलडोजर के अगर जलवे हैं तो सेहरा मुख्यमंत्री के ही बंधेगा..!

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