बलरामपुर 570 साल पुरानी नगरी

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बलरामपुर 570 साल पुरानी नगरी

बलरामपुर 570 साल पुरानी नगरी


संवाददाता के बी गुप्ता 

बलरामपुर

उत्तर में हिमालय की शिवालिक पर्वतमाला के निकट तराई क्षेत्र में जनवार क्षत्रिय राजा माधव सिंह ने 570 साल पहले बलरामपुर नगर की स्थापना की थी। देवी पाटन मंडल के इस जिले में अब जो क्षेत्र है वह प्राचीन समय में कोसल और इकौना राज्य का एक हिस्सा था। मध्यकालीन युग में यह क्षेत्र मुगल शासन के दौरान अवध सुबाह की बहराइच सरकार व फरवरी 1856 में ब्रिटिश सरकार के आदेश से अवध शासक के नियंत्रण में आ गया। बाद में अंग्रेज सरकार द्वारा जब गोंडा को बहराइच से अलग किया गया तो बलरामपुर को गोंडा जनपद में शामिल किया गया। स्थापना के 547 वर्ष बाद 25 मई 1997 को बलरामपुर को गोंडा जिले से अलग करके जिले का दर्जा प्रदान किया गया। यहां जनता के लिए स्कूल, अस्पताल, सिंचाई, बिजली, रेल, चीनी मिल आदि का इंतजाम करने के साथ यहां बड़ा व्यापारिक ढांचा खड़ा करने में राजघराने का पूरा योगदान था।

बलरामपुर 570 साल पुरानी नगरी

रामगढ़ गौरी से बना बलरामपुर

नेपाल की तलहटी में तराई क्षेत्र में इकौना रियासत के अंर्तगत प्राकृतिक सौन्दर्य सम्पन्न रामगढ़ गौरी नामक स्थान था। तत्कालीन जनवार नरेश राजा माधव सिंह ने इकौना में शासन व्यवस्था सुदृढ़ करने के उद्देश्य से अपने छोटे भाई गणेश सिंह को इकौना राज का प्रबन्ध सौंप कर स्वयं रामगढ़ गौरी आ बसे। खेमू चौधरी से युद्ध में मारे गए अपने अत्यंत प्रिय छोटे पुत्र स्व. बलराम शाह की स्मृति में उनके पिता राजा माधव सिंह ने सन 1450 में बलरामपुर नगर की स्थापना की तब से यह जनवार क्षत्रिय वंश के राज्य का प्रभावशाली केन्द्र बन गया। राप्ती नदी के तट पर बसे इस नगर में विशाल वन सम्पदा समेत राजघराने की तमाम सम्पत्ति थी। आर्थिक दृष्टि से भी बलरामपुर इकौना राज्य का सबसे वैभवशाली केन्द्र रहा।

जनवार राजवंश का गौरवशाली इतिहास

सम्वत् 1325 विक्रमी अर्थात 1268 ई0 में गुजरात के जनवाड़ा क्षेत्र से आए राजपूत बरियार शाह द्वारा इकौना में राज्य स्थापित किया गया। वे इकौना (प्राचीन नाम खानपुर महादेव) में दुर्ग बनाकर राज प्रबन्ध करने लगे। उन्होंने 1269 से 1305 ई. तक राज किया। उसके पश्चात उनके पुत्र राजा अचल देव ने 1305 से 1321ई. तक, उनके पुत्र राजा धीरशाह सन् 1321 तक, उनके पुत्र राजा राम शाह ने सन् 1363 से 1388 ई. तक, इनके पुत्र राजा विष्णु शाह ने सन् 1388 से 1404 ई. तक, उनके पुत्र राजा गंगा सिंह ने सन् 1404 से 1439 ई0 तक ने गद्दी संभाली। उनकी मृत्यु के बाद राजा माधव सिंह वर्ष 1439 में गद्दी पर बैठे। इनके समय में इकौना राज की पूर्वी सीमा पर स्थित रामगढ़ गौरी परगने के तत्कालीन भू स्वामी खेमू चौधरी द्वारा इकौना राज में विगत कई वर्षों से चौधर (कर) अदा न करने के कारण राजा माधव सिंह ने खेमू चौधरी पर चढ़ाई कर दी। खेमू चौधरी से हुए संघर्ष में राजा माधव सिंह के द्वितीय पुत्र बलराम शाह अल्पायु में ही मारे गए थे। राजा माधव सिंह ने उसे पराजित करके अधीन कर लिया। सन् 1480 में राजा माधव सिंह के मृत्यु के उपरान्त उनके पुत्र राजा कल्याण शाह ने 1480 से 1500 ई. तक तथा उनके पुत्र राजा प्राण चन्द्र ने सन् 1500 से 1546 ई. तक शासन किया। उनकी मृत्यु के बाद 1546 से 1600 ई0 तक राजा तेज शाह ने तथा सन् 1600 से 1645 तक राजा हरिवंश सिंह ने राज किया। राजा हरिवंश सिंह की मृत्यु पर ज्येष्ठ पुत्र छत्र सिंह ने सन् 1645 से 1695 ई. तक राज किया। उनके तीन पुत्रों में राजा नारायण सिंह को राज मिला। पिता राजा नारायण सिंह के निधन के बाद 1737 से 1781 तक राजा पृथ्वीपाल सिंह, 1781 से 1817 तक राजा नौसेना सिंह, 1817-1830 तक राजा अर्जुन सिंह, 1830 से 1836 तक राजा जय नारायण सिंह ने शासन किया। उनके मृत्योपरान्त उनके पुत्र दिग्विजय सिंह ने 1836 से 1882 तक शासन किया। महाराजा दिग्विजय सिंह निःसंतान थे इसलिए उनकी मृत्यु के बाद 30 जून 1882 ई. को बड़ी महारानी इन्द्र कुवंरि ने राज का कार्य भार देखते हुए 08 नवम्बर 1883 ई0 को ज्योनार गांव के अपने खानदान के ही एक बालक उदित नारायण सिंह को गोद लिया, जिनका नाम भगवती प्रसाद सिंह रखा गया। भगवती प्रसाद सिंह ने 1893 में सत्ता संभाला और 1921 तक शासन किया। उनके बाद महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह ने 1921 से 1964 तक राजकाज संभाला। महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह के निधन के बाद महारानी राजलक्ष्मी कुमारी देवी के दत्तक पुत्र महाराजा धर्मेन्द्र प्रसाद सिंह ने 1964 में राज्य की बागडोर संभाली। उनकी मृत्योपरान्त वर्तमान महाराजा जयेन्द्र प्रसाद सिंह ने 30 जनवरी 2020 को कार्यभार संभाला। परिवार के सदस्य इन्हें ‘बाबा राजा’ कह कर पुकारते हैं। वर्तमान में महाराजा जयेन्द्र प्रसाद सिंह अपने परिवार के साथ नील बाग पैलेस बलरामपुर में रह रहे हैं।

राज्य विद्युत कम्पनी, रेल लाइन

राज परिवार ने सन् 1930-31 में बलरामपुर में राज्य इलेक्ट्रिक कम्पनी बनाकर थर्मल पावर प्लान्ट स्थापित किया। इससे बलरामपुर, गोंडा और बहराइच को विद्युत आपूर्ति की जाती थी। यह थर्मल पावर उत्तर पूर्व रेलवे और सिंचाई कार्य के लिए प्रदेश सरकार को बिजली देता था। यहां का अपना इंजीनियरिंग विभाग भी था जो निर्माण कार्यों को सम्पन्न कराता था। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की नौ मील लम्बी चारदीवारी तथा महारानी देवेन्द्र कुवंरि गोपदद्वार का निर्माण बलरामपुर राज के इंजीनीयरिंग विभाग की देन है। गोंडा से बलरामपुर रेल लाइन बनवाने में राजघराने का बहुत बड़ा योगदान था। बताते हैं कि जब इस मार्ग पर पहली रेल गाड़ी चली तो इन्जन के अगले भाग में लगे सिंहासन पर बैठ कर तत्कालीन महाराजा भगवती प्रसाद सिंह गोंडा से बलरामपुर आए थे।

नाम रोशन कर रहा बलरामपुर अस्पताल

बलरामपुर राज के प्रबंधक बृजेश ंिसह के अनुसार, महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह ने 22 मार्च 1937 को राज्य का शासन प्रबन्ध संभाला तो नगर में केवल दो चिकित्सालय थे। ग्रामीण जनता की कठिनाई देखते हुए आपने 21 अस्पताल ग्रामीण क्षेत्रों में स्थापित कराये। ये अस्पताल आज तक रियासत की बिल्डिंग में कार्यरत हैं। अस्पताल बन्द न होने पाए इसके लिए एमपीपी ‘ट्रस्ट फार आउट पेशंट महारानी इन्द्रकुंवरि महिला चिकित्सालय, प्रसूति एवं बाल कल्याण विभाग तथा एमपीपी ट्रस्ट फार “वॉ” एक्स-रे डिपार्टमेन्ट बनाए गए। सीतापुर नेत्र चिकित्सालय की नंींव बलरामपुर राज द्वारा ही रखी गई और उसकी पर्याप्त धन से सहायता भी की जाती है। मेडिकल कालेज लखनऊ और प्रदेश की राजधानी लखनऊ में स्थित बलरामपुर अस्पताल आज भी बलरामपुर का नाम रोशन किए हुए हैं। वर्ष 1869 में बलरामपुर राज की जमीन एवं 02 लाख रूपये लगाकर महाराजा दिग्विजय सिंह ने इसकी स्थापना की थी। ग्रामीण जनता के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में 21 अस्पताल स्थापित कराए गए।

बनाया कृषि फार्म, शुरु की चकबंदी

बलरामपुर रियासत ने डेयरी विभाग के माध्यम से कई माडल फार्म स्थापित किए गए, जिसमें महराजगंज जयप्रभा ग्राम, सिरसिया कृषि फार्म तथा तुलसीपुर राजमहल के निकट पैड़ी का फार्म होता था। कृषि को बढ़ावा देने के लिए विदेशों से कृषि वैज्ञानिकों को बुलाया जाता और उनकी तकनीक अपनाई जाती। फसल को जंगली जानवर से बचाने के लिए तीन फुट गहरी तथा तीन फुट ऊपर कुल छह फुट की ऊंचाई की 34 मील लम्बी खाई बंाधकर उस पर अइल की सघन झाड़ी लगाने में लाखों रुपये व्यय किए। कृषि में सुधार लाने के उद्देश्य से उन्होंने सन् 1937 में अपने राज्य में चकबन्दी शुरू कराई। प्रदेश में चकबन्दी का यह प्रथम सूत्रपात था।

लगवाए सात सौ नलकूप

बलरामपुर राज द्वारा जब सन् 1930-31 में थर्मल पावर स्थापित हो गया तो सिंचाई व्यवस्था सुदृढ़ करने के लिए नलकूपों की स्थापना की जाने लगी। सन् 1930-35 के बीच बलरामपुर राज्य में सिंचाई हेतु नलकूपों को जाल बिछा दिया गया। जबकि प्रदेश के अन्य क्षेत्रों से नलकूपों का कहीं नामोनिशान तक न था। अमेरिकी इंजीनियर फ्र्रेकलिंक ने राज्य का सर्वे करके रिपोर्ट दी, जिसके अनुसार सात सौ नलकूप लगाए गए। राप्ती के उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र में जहंा नलकूप लगाना सम्भव नहीं था। यहंा सिचाई के लिए बंाध बनाकर सरोवर तैयार किए गए। इनमें कोहरगड्डी विषेश रूप से उल्लेखनीय है। नौ मील के घेरे में स्थित इस सरोवर की क्षमता 442 मिलियन घनफिट तथा इससे 8075 एकड़ भूमि की सिंचाई हो सकती है। गनेशपुर, भगवानपुर तथा मोतीपुर बसेहवा भी अच्छे कुण्ड है। रेतवागढ़, राजधाट और पिपरा की नहरें भी खुदवाई गईं।

शिक्षा में छोटी काशी रहा बलरामपुर

शिक्षा के क्षेत्र में बलरामपुर को काशी (वाराणसी) के बाद जाना जाता था। लोग इसे छोटी काशी में कहते थे। बलरामपुर में छात्र छात्राओं के लिए अलग-अलग शैक्षिक संस्थानों की स्थापना की गई। यह शेैक्षिक संस्थाएं अबाध गति से चलती रहे इसके लिए महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह ट्रस्ट की स्थापना 1951 में की गई। इस मुख्य ट्रस्ट के अधीन 12 छोटे छोटे ट्रस्ट हैं, जिनमें शैक्षिक विकास के लिए एमपीपी ट्रस्ट फार महारानी लाल कुवंरि महाविद्यालय, एमपीपी ट्रस्ट फार हाईस्कूल (इण्टर) (वर्तमान एमपीपी इण्टर कालेज का नाम पूर्व में लायल कालेजिएट जूनियर हाईस्कूल था), एमपीपी ट्रस्ट फार गर्ल्स जूनियर स्कूल, एमपीपी ट्रस्ट फार देवेन्द्र कंुवरि बालिका विद्यालय, एमपीपी ट्रस्ट फार डीएवी कालेज एवं बलरामपुर ओेैर तुलसीपुर की संस्कृत पाठशालाएं आज भी कार्यरत है। महाराजा ने कैंनिंग कालेज लखनऊ को तीन लाख रूपये, लखनऊ विश्वविद्यालय को चार लाख, लखनऊ मेडिकल कालेज को तीन लाख, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी को चार लाख, लखनऊ मेडिकल कालेज को तीन लाख तथा मैकडानल्ड छात्रावास प्रयाग को तीस हजार दान दिए थे। करोड़ों की सम्पत्ति सिटी पैलेस को बलरामपुर डिग्री कालेज को दान स्वरूप देकर राज परिवार की शैक्षिक विकास हेतु यह एक अनुपम भेंट है। इसके अलावा महाराजा ने दस लाख रूपये व्यय कर काशी अब बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की नौ मील लम्बी चारदीवारी का निर्माण कराया। 

दो चीनी मिल, तीन आलीशान होटल

किसानों को नकदी फसल के रुप में गन्ना उत्पादन का लाभ दिलाने और क्षेत्र के औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए राज परिवार ने चीनी मिल लगाने वाली इंग्लैण्ड की इंजीनियरिंग कम्पनी बेक एण्ड सदरलैण्ड कम्पनी के साथ मिलकर सन 1932-33 में बलरामपुर और तुलसीपुर बाजार में चीनी मिलों की स्थापना की। इनके 51 प्रतिशत का स्वामित्व महाराजा तथा शेष 49 प्रतिशत स्थानीय लोगों के पास था। इन चीनी मिलों का संचालन वही कम्पनी करती थी। संचालन की समस्या हुई तब महाराजा ने मिलों को उद्योगपतियों के हाथ बेंच दिया। महाराजा धर्मेन्द्र प्रसाद सिंह ने बाहर से आने वाले पर्यटकों और जिले के लोगों की सुविधा के लिए बलरामपुर हाउस, नैनीताल, महामाया होटल की स्थापना की। 

विशाल वन सम्पदा, प्राणि उद्यान

जमींदारी उन्मूलन तक बलरामपुर राज्य के अर्न्तगत 72 हजार हेक्टेयर प्राकृतिक वन तथा 20 हजार एकड़ आरोपित वन थे। इसके अतिरिक्त 40 लाख फुटकर पेड़ थे। यहां के बनकटवा क्षेत्र में पहले काले शीशम के वृक्ष होते थे जिसकी मंाग देश के सुदूर क्षेत्रों में होती थीं। शहर में स्थित आनन्द बाग ज्योति टाकीज और कोल्ड स्टोरेज के निकट का वास्तविक नाम आनन्द बाग जू था। इसमें चीता, हिरन आदि के अलावा बहुत तरह के पशु-पक्षी थे। जिन्हें बाद में लखनऊ चिड़ियाघर को दे दिया गया।

धार्मिक एवं सामाजिक उत्थान में अग्रणी

बलरामपुर को शिक्षा के क्षेत्र में यदि छोटी काशी की संज्ञा दी जाती थी तो छोटे-बड़े तमाम मन्दिरों के कारण इसे छोटी अयोध्या भी कहा जाता था। बलरामपुर शिवालयों, मंदिरों एवं जलाशयों का नगर है। नील बाग कोठी के पास राधाकृष्ण मन्दिर और सिटी पैलेस के भीतर का पूजा गृह और मंदिर, तुलसीपुर में देवी का स्थान, बिजलीपुर में बिजलेश्वरी मन्दिर, बलरामपुर में बड़ा ठाकुरद्वारा आदि अनेक मन्दिर बलरामपुर राजवंश की धार्मिक मनोवृत्ति के द्योतक है। शिवालयों के  शिखर बलरामपुर को अयोध्या एवं मथुरा की तरह तीर्थ का स्वरूप देते हैं। श्रावस्ती के चीन मंदिर और एक धर्मशाला भी इसी रियासत ने बनवाई थी। गंाधी दर्शन के अध्ययन, प्रचार हेतु आर्थिक सहयोग तथा श्रावस्ती आश्रम निधि को राजपरिवार द्वारा पंाच सौ बीघे जमीन दिया गया। मोती लाल स्मारक समिति भवन के लिए महाराजा बलरामपुर ने अपनी पूरी सम्पत्ति मुफ्त में ही दे दी। महारानी जयपाल कुंवरि प्रिवी कंाउसिल के निर्णय के अनुसार मिलने वाला वार्षिक 25 हजार रूपये भी विद्या प्रचार, धार्मिक एवं सामाजिक कल्याण के कार्याे में लगातीं थीं। महाराजा भगवती प्रसाद सिंह ने अपने कार्यकाल में 60 लाख रूपये सार्वजनिक संस्थाओं को दान में दिए। 09 जून 1957 को महाराजा पाटेश्वरी प्रसाद सिंह ने “धर्म कार्य निधि” नाम से एक अन्य चेरिटेबिल ट्रस्ट की स्थापना करके अपने राज्य की लगभग 80 लाख की सम्पत्ति इस ट्रस्ट में निहित कर दी।

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